राजस्थान के गृह मंत्री ओर मुख्यमंत्री को ये कहते हुये रोज सुना जा सकता है.. ये साहब और साहिबा ये नहीं बता रहे है कि इनके सब्र कि सीमा क्या है? ये कब कहेगे ...ओर नहीं..बस ओर नहीं
६-७ दिन हो गये.. रास्ते बन्द है.. ट्रेन जा नहीं रही.. जनजीवन अस्त व्यस्त है.. ओर कोइ कुछ नहीं कर रहा.. इन्तजार के सिवा... दोनो पक्ष अडे है... ओर संवादहिनता कि स्थति बनी हुई है..
लगने लगा है राजस्थान मे सरकार नाम कि कोई चिडिया नहीं है... ओर बैसला साहव अहिंसा ओर आन्दोलन के नाम पर लाखों लोगो का जीना हराम कर रखे है..
इन्होने पिछली बार भी इसी तरह से सरकार को बन्दी बनाया था.. सरकार अपने हाथ जला चुकि थी.. स्पष्ट है कि सरकार ने कोइ सिख नही ली.. ओर भविष्य के लिये कोई रणनिति नहीं बनाई.. चंद IAS ओर IPS के तबादले कर सोच लिया कि सब ठीक हो जायेगा..
आस्तिकता की हद है.. लेकिन ये भुल गये कि ईश्वर उनकी मदद करता है जो खुद अपनी मदद करते है.... या फिर ये सब इश्वर कि लिला समझ के मुक दर्शक बने है...
हे माता वसुन्धरा.. हे अन्न्पुर्णा देवी... हे महारानी... (आपके समर्थक आपको यही कहते है)... कृपा करें.. कुछ करें.. ओर मेरे मरुधर देश का अमन लौटा दिजीये..
कोइ मेरे सब्र का इंतिहान ना ले!!
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रंजन (Ranjan)
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Thursday, May 29, 2008
4 comments:
रंजन जी, आपने बहुत सही लिखा है. वास्तव में राजस्थान में सरकार जैसी कोई चीज़ नज़र नहीं आती. अगर आप हमारे गृह मंत्री महोदय के बयान पढें (लोग कहते हैं कि वे बहुत भले आदमी हैं) तो लगेगा कि उनसे अधिक लाचार और कोई नहीं है. आज उन्होंने कहा है कि ‘ऐसे ही’ चलेगा. धन्य हैं कटारिया जी. अगर ऐसी ही चलना है तो आप गृह मंत्री किस खुशी में बने बैठे हैं? आपके बिना भी ‘ऐसे ही’ चल सकता है. उधर महारानी जी! तीन दिन तो उन्हें शायद पता ही नहीं चला कि उनके राज्य में कोई आन्दोलन चल भी रहा है. और जब पता चला तो बजाय आन्दोलन की आग बुझाने के राजनीति कि खेल में मशगूल हो गईं. भाई, गूजर आपसे मांग कर रहे हैं और आप एक पुराना खत केन्द्र को भेज कर गूजरों को कह रही हैं वे केन्द्र पर दबाव बनाएं. आपसे तो समस्या हल हो नहीं रही, केन्द्र की समस्या और बढा रही हैं. साफ कहिये ना कि आप गूजरों की मांग के अनुसार पत्र लिख रही हैं या नहीं? लेकिन साफ किस मुंह से कहें? आग लगाई भी तो इन्हीं की हुई है.
और राज्य का प्रशासन? उसकी तो क्या बात करें? गूजरों ने काफी पहले चेतावनी दी थी इस आन्दोलन की. तब सरकार ने क्या किया? उनकी बात सुनी? उनसे संवाद किया? क्या कर रही थी आपकी इण्टेलीजेंस? आपको पता ही नहीं चला और उन्होंने इतने बडे आंदोलन की तैयारी कर ली! शर्म! और जब आन्दोलन चल रहा है तो सारा प्रशासन जैसे हाथ पर हाथ धरे बैठा है. किसी को परवाह नहीं है कि आम आदमी की ज़िन्दगी कैसे नरक होती जा रही है? और इस सब के बीच, सीरियल ब्लास्ट.. उसे तो जैसे भुला ही दिया गया है. सरकार मन ही मन कह रही होगी, चलो अच्छा हुआ जो यह गूजर आन्दोलन हो गया. ब्लास्ट के भूत से तो पीछा छूटा.
अगर सरकार ऐसे ही काम करती है तो सरकार के होने की ज़रूरत ही क्या है?
Bahut acha likha hai Ranjan...
I agree with your thoughts and appreciate you for taking a stand.We are not helping ourselves by not raising our concerns and views on important public issues. I am inspired by your writing..
-Love
Ramesh
Dear
Good going
JANCHETNA ABHIYAN
Keep on
Best Wishes
जो सरकार कोटा यूआईटी के लिए चार साल में एक अदद चेयरमेन, उपभोक्ता मंच के लिए दो साल में दो मेम्बर और जिला लोक अदालत के दो मेम्बर नहीं नियुक्त कर सकती। उसे आप सरकार कैसे कह सकते हैं। झालावाड़ जिले में महारानी के चारण हफ्ता महीना वसूल कर रहे हैं।
गुर्जर ट्राइब तो हैं क्यों कि उन्हें पहले क्रिमिनल ट्राइब्स में चिन्हित थे। आजादी के बाद उस कानून के खत्म होने पर मुक्ति पाई। उन के ही मीणा भाई आज राजस्थान की पूरी ब्यूरोक्रेसी को कब्जाए बैठे हैं और उन के लिए केवल आश्वासन से काम नहीं चल रहा है। उन्होंने केवल एक स्थान पर जाम लगाया था उसे हटाने में पहले ही दिन गोलियाँ चला दी गईं।
कैसे कहें इसे सरकार। शान्ति बनाए रखना गूजरों का नहीं सरकार का काम है वह इसे राजनैतिक प्रक्रिया से बनाए या किसी और तरीके से पर इतना दमन तो ठीक नहीं।
गूजर एक आँदोलन कर रहे हैं। हिंसा की वजह से आंदोलन वापस लेने के फरमान के लिए महात्मा गाँधी को आज तक इन्हीं बीजेपी संघ वालों ने नहीं बख्शा। फिर गूजर क्यों वापस लें?
यह आरक्षण आंदोलन आरक्षण को ही पलीता लगा चुका है। राजस्थान में गूजरों की मांग मानने का साहस नहीं है। राजस्थान जानता है कि मीणा आबादी गूजरों से दुगनी है। वे इन से दुगना उत्पात कर सकते हैं और ब्यूरोक्रेसी का प्रमुख हिस्सा भी हैं। सरकार को बिलकुल ठप कर सकते हैं।
संसद को हि्म्मत जुटानी होगी, राजनीतिक दलों की सर्वसम्मति बना कर। आरक्षण का विकल्प तलाशना होगा और उसे प्रतिस्थापित करना होगा। वरना गूजरों के जैसे आंदोलन रोजमर्रा की वस्तु हो जाएंगे।
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