ओबामा महाशय को नोबल पुरस्कार क्या मिला सभी उनके पीछे लग गये.. सवाल उठने लगे... उनकि क्या उपलब्धि है, उन्होने आखिर क्या किया, अभी केवल बातें कि काम होना बाकि है.. वगैरह वगैरह.. अरे भाई ये पुरस्कार उन्हें शांति का संदेश देने या विश्व शांति की दिशा में पहल करने के लिये नहीं दिया जा रहा.. ये पुरस्कार तो उन्हे शांति बनाये रखने के लिये दिया जा रहा है... कैसे.. जरा सोचो अगर ओबामा चाहते तो अपने अग्रज बुश भाई साहब जैसे इराक पर बम डाल सकते थे...
ओसामा कि खोज तेज करने के लिये अफगानिस्तान पर बम बरसा सकते हैं... भारत में २६/११ के हमले में पाकिस्तान का हाथ होने पर पाकिस्तान में आंतकि खोजने जा सकते थे... , ड्रोन से हमले करवाने के बजाये परमाणु बम फोड़ सकते थे.. भाई एक ताकतवार आदमी क्या क्या नहीं कर सकता.. पर उन्होने नहीं किया.. दिया न शांति में योगदान.. बने न वो नोबल के हकदार.. तो बजाओ ताली....
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आदि साहेब जोधपुर पहुँच गये है.. दिपावली मनाने आदि के बारे में जल्द ही यहां पर..
शांति बनाये रखने के लिये नोबल
ये कैसी पत्रकारिता..
"टाइम्स ऑफ इंडिया" के दिल्ली टाइम्स में मुख्य पृष्ठ पर बलात्कार के आरोपी अभिनेता "शाइनी आहुजा" कि तस्वीरों के साथ उनकी पत्नी का इंटरव्यु छपा है.. शाइनी तीन महिने हवालात में रह कर अब जमानत पर बाहर आयेगा.. बहुत महान काम के लिये वो जेल में गये थे.. एक आरोपी को महिमा मंडित कर समाज को क्या संदेश देना चाहते हैं.. गलत कारणों से सुर्खिया बटोरने वाले इन तथाकथित पेज तीन के लोगों के अपराध को इस तरह से पेश करना जैसे कुछ नहीं हुआ हो? क्या ये पीडितों के घाव पर नमक छिड़कने जैसा नहीं है...
जो सवाल "ToI" ने शाइनी कि पत्नी से पुछे अगर वो ही सवाल उस पीडिता से पुछे जाते तो क्या जबाब मिलता? पढिये पीडि़ता का काल्पनिक इंटरव्यु-
दो जुते लगाऊगीं...
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आदि कि खबर यहां पर
हमारी तो शक्ल पर लिखा है कि हम शरिफ़ है..
त्रिवेंद्रम एयरपोर्ट से -
कन्याकुमारी जिले से वापसी (दिल्ली) की यात्रा थकाने वाली होती है.. कन्याकुमारी के जिला मुख्यालय नागरकोविल से त्रिवेंद्रम और त्रिवेंद्रम से दिल्ली..
प्राथमिकता रहती है कि त्रिवेंद्रम से सुबह कि फ्लाईट से दिल्ली आ जाये.. त्रिवेंद्रम से IC कि फ्लाइट ’नल आर आर’ मतलब IC 466.. (इतनी मलयाली तो समझ आ गई) सुबह ६.१५ पर चलती है.. तो सुबह ५.१५ पर एयपोर्ट के दरवाजे पर दस्तक दे दाली.. और कुछ ही सेकण्डस में हमारी सारी थकान दूर हो गई..
मुख्य दरवाजे पर सुरक्षा कर्मी को टिकट थमाया.. उसने देखा (टिकट का जो हिस्सा उसके सामने था उसमें ज्यादा से ज्यादा ये ही पढ़ सकता था).. कि किस तारिख और समय कि फ्लाईट है.. किसका टिकट है.. शायद उसे मतलब नहीं... और मैं इंतजार कर रहा था कि अब वो मुझसे परिचय पत्र मागेंगा, एक हाथ जेब की और जाने वाला था कि मेरी खुशी का ठिकाना न रहा.. उसने इशारा किया "रहने दो"... मजा आ गया सुबह सुबह प्रमाण पत्र मिल गया कि मै शरिफ़ हूँ.. और ये मेरी शक्ल पर लिखा है..और क्या चाहिये..
मजे कि बात ये कि बोर्डिंग कार्ड जारी करने वाले महाशय ने भी मेरा परिचय पत्र नहीं मांगा... तो आप निश्चिंत रहिये.. हमारी सुरक्षा कुशल हाथों में है.. या कम से कम मैं तो शरिफ़ हूँ..:)
सकुशल पहुचे तो दिल्ली जाकर आपकी प्रतिक्रिया देखेगें..
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यहां देखे आदि आज क्या नई शरारत कर रहा है...
Labels: सुरक्षा
हमारी मेट्रो और तुम्हारी स्काई ट्रेन..
पिछले दिनों बैंकाक गया तो स्काई ट्रेन की सवारी की.. स्काई ट्रेन बोले तो वहाँ की मेट्रो.. पेश है स्काई ट्रेन और दिल्ली मेट्रो की तुलना..
- साफ सफाई के मामले में दोनों टक्कर की है.. प्लेटफार्म चकाचक.. ट्रेन चकाचक.. पर पटरी पर आते हमारी मेट्रो थोड़ी पिछ़ड जाती है.. वहाँ पटरी साफ दिखती है.. पर हमारी मेट्रो पर कुछ कुछ रंगीन निशान दिखाई देने लगे है.. पान और गुटके की पीक के
- हमारी मेट्रो में चार डिब्बे है (अभी तक) और स्काई ट्रेन में दो/तीन.. मतलब हमारी मेट्रो में ज्यादा लोग सफर करते हैं.. डिब्बो में सीटों को देखे तो हमारे यहाँ सीटों की बनावट इस तरह से है कि आठ की जगह मैं नौ तो आराम बैठ सकते है पर स्काई ट्रेन में सीटें इस तरह से है कि एडजस्ट नहीं कर सकते.. एक पर एक ही..
- हमारी मेट्रो में जिसको जो सीट मिले बैठ जाते है.. और एक बार बैठने पर हम किसी को सीट नही देते. चाहे महिलाये बुजुर्ग खडे़ हो.. पर स्काई ट्रेन में सीटों पर ज्यादातर महिलायें बुजुर्ग बैठे मिलते है.. हाँ कुछ सीटें बोद्ध भिक्षुओं के लिये आरक्षित भी है..
- स्काई ट्रेन बैंकाक के एक छोटे हिस्से को ही कवर करती है.. अतः आप बहुत सिमित जगह ही यात्रा कर सकतें है... जबकी मेट्रो दिल्ली का एक बड़ा हिस्सा कवर करती है और विस्तार भी हो रहा है..
- मेट्रो परियोजना एकिकृत है.. मतलब अण्डर ग्राऊडं और एलिवेटेड एक ही योजना का हिस्सा है... आप एक ट्रेन से एक टिकट से दोनों हिस्सों में सवारी कर सकतें है.. जबकि बैकाक में स्काई ट्रेन और अंडर ग्राउडं ट्रेन (MRTA) दो अलग योजनाऐं है.. इंटरचेंज स्टेशन पर आपको एक प्लेटफार्म से बाहर आकर दुसरे प्लेटफार्म में जाना पड़ता है.. लेकिन (शायद) एक टिकट से काम चल जाता है . (मैने MRTA में सफर नहीं किया, इस बार जाऊगां तो ट्राई करुंगा)..
- टिकट मेट्रों में काफी लोग टिकट खिड़की से टिकट लेते है.. सिस्टम मेन्युल है.. BRT स्टेशन पर टिकट वेंडिंग मशीन लगी है.. सिक्के आपको काउंटर पर मिल जाते है और टिकट खुद लेना होता है.. जो एक विजिटिंग कार्ड जैसा होता है प्लास्टिक का.. मेट्रो में टिकट सिक्के जैसा होता है..
- स्काई ट्रेन बाहार से विज्ञापन से पुती नजर आती है.. अंदर भी काफी विज्ञापन है पर मेट्रो साफ सुथरी है..
- स्काई ट्रेन के कोच में सुचना के लिये डिस्प्ले स्क्रिन है... जिस पर विज्ञापन और सुचना आती रह्ती है..मेट्रो में सुचना के लिये एनलॉग बोर्ड है..
- मेट्रो के भीड़ भरे स्टेशन पर बहुत सुरक्षा इंतजाम होते है.. बल्कि पेसेंजर को चढ़ाने उतारने के लिये मार्शल भी तैनात रहते है.. स्काई ट्रेन के प्लेटफार्म पर एक्का दुक्का सुरक्षा कर्मी होते है.. और सारे लोग आत्म अनुसाशित हो कर चढ़ते उतरते है
- मेट्रो के स्टेशन शहर कि मुख्य इमारतों से नहीं जुड़ते.. आपको मेट्रो स्टेशन से बाहर आकर सडक क्रास कर या पैदल चल अन्य जगह जाना होता है.. स्काई ट्रेन के स्टेशन प्रमुख इमारतों जैसे मॉल, होटल से सीधे जुड़े है.. प्लेटफार्म से बाहर आकर विशेष कॉरिडोर से आप सीधे पहुँच जाते है.. सड़क के ट्रेफिक की आपको चिन्ता करने कि जरुरत नहीं.. और तो और ट्रेन की पटरी के समानान्तर फ्लोर पर (सड़क के उपर दो लाइन है.. पहले पर फुट पाथ और दुसरे पर ट्रेक) पैदल यात्री आराम से चल अपनी मंजिल पर पहुँच जाते है..
- टिकट दर - ये सबसे महत्तवपुर्ण है.. आपको सफर के लिये कितने पैसे खर्च करने होते है..स्काई ट्रेन पर मिनिमन टिकट है १५ बाहत का (लगभग २२ रुपये) जबकि मेट्रो ६ रुपये.. स्काई ट्रेन में ६ किमी जाने के लिये मैने खर्च किये लगभग ३० रुपये.. जबकी मेट्रो में १५ रुपये देकर रोज ३० किमी सफर करता हूँ..
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वैसे आदि अगर ये बतायेगा तो मेट्रो को तेत्रो कहेगा आप समझ लेना..
Photo courtesy
http://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/4/47/Bangkok_Skytrain_interior.JPG
www.panoramio.com/
http://cache.virtualtourist.com/236571-BTS_Skytrain-Bangkok.jpg
http://www.readbangkokpost.com/images/skytrain10.jpg
http://www.funonthenet.in/articles/new-delhi-pictures.html
http://www.urbanrail.net/as/delh/delhi.htm
http://risingcitizen.blogspot.com/2009/02/photo-gallery-of-delhi-metro-and-metro.html
आखिर क्या दिक्कत है वाड़ा के नियमों से..
भारतीय क्रिकेटरों से वाड़ा के अनुबंध पर दस्खत करने से इंकार कर दिया... सुना है उनकों एक क्लॉज से दिक्कत है.. और वो ये कि हर खिलाड़ी को अपने हर दिन का हिसाब देना होगा.. अब जब दुनिया के बड़े से बड़े खिलाडियों को इससे दिक्कत नहीं तो भला धोनी, युवी को क्या आपत्ती है.. वैसे तो मुझे भी कोई दिक्कत नहीं लगती पर जरा गौर से सोचने पर दो कारण नजर आते है..
१. अगर हर दिन का हिसाब लिखा जाने लगा तो सबको पता चल जायेगा कि हमारे क्रिकेटर कितने दिन प्रेक्टिस करते है और कितने दिन विज्ञापनों कि शुटिंग और किस किस कम्पनी के लिये.. ये तो लफ़डा हो जायेगा.. बिना पैसा लिये ’सच का सामना’ हो जायेगा.. सारी पोल पट्टी खुल जायेगी.. और अपने पेट पर खुद क्यों लात मारे.. जाओ नहीं देगें ’वाडा’ को हिसाब..
२. दूसरा कारण ये कि सुना है क्रिकेटरों की कई ’गर्ल फ्रेंड’ होती है.. कभी ये डिस्कों में पाये जाते है और कभी कहीं और.. और अगर ये सब बता दिया तो .. भारतीय मिडिया को नहीं जानते.. कर डालेगें स्टिंग ऑपरेशन.. और सारा खेल खत्म.. और इससे जुड़ता एक और मामला है.. सोचो किसी की एक से ज्यादा गर्ल फ्रेंड हो तो.. सारा हिसाब आऊट.. न बाबा न.. इतना रिस्क नहीं लेने का... से नो टु ’वाडा़’
प्ले सेफ...
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वैसे इससे आदि को कोई फर्क नहीं पड़ता वो मस्त है अपनी प्रेक्टिस में.. देखिये..
सुखद पल
आदि के बारे में आदि के ब्लोग पर तो बहुत कुछ है.. पर आज सोचा क्यों न इस ब्लोग पर भी आदि के बारे में कुछ लिखुँ.. आज आदि तो बहुत याद कर रहा हूँ..
मेरी इच्छा होती कि कभी आदि आये और मेरे सीने पर सो जाये पर वो ये मौका कभी नहीं देता था.. अपने हाल में मस्त.. आजाद रहना उसे ज्यादा पंसद है शायद.. पर एक दिन उसने मुझे ये मौका दिया.. वो चुपके से मेरे सीने में दुबक गया.. और मुझे शायद मन माँगी मुराद मिल गई.. अब आदि अक्सर मेरे पास आकर मेरे सीने पर सो जाता है.. और में उन पलों का भरपूर आंनद लेता हूँ..
लव यू बेटा!!
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अभी तो हमारी ट्रेनिंग होनी है..
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राजनीतिक विधवा ??
विवेक जी ने आज अखबारों के भाषा प्रयोग पर एक पोस्ट की.. उसी अखबार (नवभारत टाइम्स) के संपादकिय पृष्ठ पर महिला आरक्षण के पक्ष में एक लेख आज प्रकाशित हुआ.. उसका ये वाक्य देखिये..
".... सबसे ज्यादा 12 महिलाएं संसद में पहुंचाने वाले राज्य यूपी की बात करें तो यहां की महिला सांसदों में से तीन राजनीतिक विधवाएं, तीन राजनेताओं की पत्नियां, दो बहू और एक बेटी है...."
राजनीतिक विधवा क्या शब्द हुआ? कितना अपमानजनक है.... क्या शब्दों का चयन करते हुऐ इतनी सावधानी नहीं रख सकते?
खुद की अक्ल कहां गई थी?
कल से एक समाचार सारे न्युज चैनल पर छाया हुआ है कि एक डॉ रुपये ने तिगुने करने का झांसा देकर करोडो की ठगी की.. सभी उस डा के बारे में बात कर रहे है, चर्चा हो रही है कि उसने किस तरह ठगी की, कब से शुरु किया, वगैरह वगैरह....
ये तस्वीर का एक पहलु है, इसका दुसरा पहलु भी देखना समझना जरुरी है... जरा गौर किजिये यह आदमी सालों से इस ठगी में सलग्न है.. ११ रा्ज्यों में उसका नेटवर्क फैला था, और उसने लाखों आदमीयों को ठगा.. दिन के उजाले में...कौन जिम्मेदार है वो डॉक्टर? नहीं, वो तो इस पुरे चक्र का एक छोटा सा पात्र है, क्यों लाखों लोग इतने समझदार निकले जो मान गये कि कोई उन्हें जादुई शक्तियों से रकम तिगुनी कर देगा.. क्या वो सारे के सारे नासमझ थे कि ठगी का ये मामुली खेल नहीं समझ पाये? शायद नहीं. मुझे एक किस्सा याद है सन १९९३-९४ के आस पास का, जोधपुर में एक एजेंसी खुली "वेंकटेश एण्टरप्राईजेज" के नाम से... उसकी स्कीम देखिये १०००० रुपये की वस्तु आपको ४००० रु में मिलेगी.. आप ५०० रू प्रतिदिन के हिसाब से ८ दिन रुपये जमा करवाईये ९ वें दिन वो वस्तु आप घर ले जाइये...कितना सरल... समय के साथ उसने २००००, ३०००० रु की चीजें भी ओफर करना शुरु कर दिया... खुब धुम धाम से चली से स्कीम .. शुरु के दिनों में उसने कई लोगों को सस्ती चीजें दी... तो क्या लोगों का भरोसा जीत लिया उसने? नहीं.. सभी जानते थे कि वो ठग है और वो शहर से भागेगा.. पर वो ये सोच कर रुपये जमा करवा रहे थे कि इतना जल्दी नहीं भागेगा.. इसी चक्कर में उसका कारोबार बढ़ता गया और लगभग २० दिन बाद लाखों की ठगी कर वो फरार हो गया.. दोषी कौन? ठग? एक हद तक .. पर असली वजह है हमारा लालच.. हम अपने लालच की पट्टी आंखों पर बांध किसी चमत्कार की आशा में गाढे़ खुन पसीने की कमाई किसी के हवाले कर देते है और थोड़े समय बाद हाथ मलते रह जाते हैं.. और दोष देते हैं कि कोई हमें ठग गया...
सवाल है हमारी व्यवस्था का भी है.. जब ये चमत्कार प्रचारित किया जाता है और घटित हो रहा होता है उस समय हमारी पुलिस, मीडिया, जागरुक नागरिक कहाँ होते हैं.. क्यों हम अपने आस पास की घटनाओं से अन्जान अपनी दुनिया में खोये रहते हैं..
जब तक ये होता रहेगा नटवरलाल आते रहेंगें और ठगी होती रहेगी?
अगर बहुत भारी हो गया हो तो आदि के ब्लोग का एक चक्कर लगा आईये,चहरे पर फिर से मुस्कान आ जायेगी गारंटी से!!
ये तो स्टाफ है..
२६ नवंबर के बाद भी हम कितने लापरवाह है ये आज सुबह फिर से देखने को मिला.. मुंबई एयरर्पोर्ट के गेट नं १B से प्रवेश करते हुऐ मैने देखा कि CSIF के १०-१२ जवानों को बिना किसी जाँच के एयरपोर्ट में दाखिला मिल रहा है..
ये जवान सुरक्षा कर्मी के पीछे से आराम से प्रवेश कर रहे थे.. मन में शंका हुई.. प्रश्न उठे.. एसा क्यों.. ये सुरक्षाकर्मी इतना विश्वास से कैसे ढील दे रहा है....रहा नहीं गया..और पुछ लिया.. जबाब मिला "ये तो स्टाफ है..." मैने कहा पर कम से कम आई कार्ड तो देख सकते हैं.. क्या पता कोई नापा्क इंसान हो.. कुछ जबाब नहीं मिला...
अपनी चिन्ता वहां के अधिकारी को बताई.. उसने गोपनियता का हवाला दे लापरवाही छुपाने की कोशिश की...
ये् है हमारी सु्रक्षा..
(IT 4147 bay 27 से)
तीसरी खुशी
सुबह ८ बजे आदि को बाय कर घर से निकला तो याद आया कि कुछ जरुरी पेपर भूल गया हूँ.. फिर से घर लौटा तो लग रहा था आज ८.१० वाली मेट्रो छूट जायेगी.. आज लेट हो जाऊंगा.. जल्दी से पेपर लेकर दौड़ते हुए घर से निकला.. सरपट गाड़ी दौडाया.. जैसे ८.१० कि ट्रेन न मिली तो पता नहीं क्या हो जायेगा... गाड़ी पार्क कर दौडते हुऐ स्टेशन में दाखिल हुआ.. "इंद्रप्रस्थ की और जाने वाली मेट्रो प्लेटफोर्म पर आ रही है.." सुरक्षा जांच में जाते हुऐ ट्रेन की आवाज सुनाई दी... सुरक्षा कर्मी की और गिड़्गीडाते हुए देखा आंखे कह रही थी "भाई जल्दी जाने दे".. वो भी शायद समझ गया.. वंहा से निकला तो दो असंमझस था... स्वचालित सिढ़ी से जाऊ या सिढ़ी से.. देर हो रही थी.. अतः खुद पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझा.. सिढ़ी की ओर लपक लिया.. उछलते कुदते सिढी़ चढा.. देखा सामने मेट्रो रानी खड़ी थी.. तुरंत अंदर दाखिल हुआ.. जैसे कोई किला फतह कर लिया.. मन ही मन खुद की प्रसंशा.."वाह प्यारे तुमने तो कर दिखाया.." ये थी आज की पहली खुशी..
जब ट्रेन में दाखिल हुए तो लालच और बढा़... एक सीट मिल जाये तो क्या कहने... आंखे इधर उधर ताकने लगी.. अभी गुजांइश थी.. कुछ सीट खाली थी.. लपक लिये.. देखा वो तो आरक्षित है.. उस पर बैठना नादानी होगी.. कुछ ही देर में उठा दिये जाओगे.. फिर क्या दुसरे कोच में दाखिल हुए.. सामने देखा एक सीट मेरा इन्तजार कर रही थी.. कोई और आये इससे पहने ही तुरंत अपना हक जता दिया.. सीट पर बैठ कर एक गहरी सांस ली.. लगा आज का दिन कितना अच्छा है.. काश उपर वाले से कुछ और मांगा होता!! दौड़ भाग कर सांस फूल चुकी थी.. कुछ गहरी सांस ले खुद को सामान्य किया.. ये थी आज की दुसरी खुशी....
कुछ देर बाद सांस सामान्य हुई तो अखबार की याद आई, थैला देखा तो पता चला की आज तो जल्दबाजी में घर ही भूल आये है.. अब अपने लिये कुछ नहीं बचा था.. तो नजरें ऊपर उठाई.. आस पास देखा.. अचानक नजरें रुक गई.. दुसरे कोच में एक महिला खड़ी थी.. हाथ में दो ढाई साल का बच्चा.. उसकी और देखा.. जब नजर मिली तो "अपनी" सीट से उठते हुऐ उसे "सीट" ऑफर की.. उसके साथ उसके पति भी थे.. तुरंत ही मेरी तरफ बढ़ गये.. इतने में खाली सीट देख कुछ और लोग उस तरफ बढे पर आंख से इशारा कर उन्हें मना किया.. वो मान भी गये.. अब महिला और बच्चा उस सीट पर बैठे थे.. और मैं उनके सामने ही खड़ा था.. महिला के होठ हिले.. पर आवाज नहीं आ रही थी.. लेकिन उसकी आंखे शायद मुझे धन्यवाद कह रही थी.. माँ और बच्चा दोनों खुश थे आराम से थे.. और मैं खडे़ खडे़ "तीसरी खुशी" के बारे में सोचता हुआ सफर कर रहा था....