सुबह ८ बजे आदि को बाय कर घर से निकला तो याद आया कि कुछ जरुरी पेपर भूल गया हूँ.. फिर से घर लौटा तो लग रहा था आज ८.१० वाली मेट्रो छूट जायेगी.. आज लेट हो जाऊंगा.. जल्दी से पेपर लेकर दौड़ते हुए घर से निकला.. सरपट गाड़ी दौडाया.. जैसे ८.१० कि ट्रेन न मिली तो पता नहीं क्या हो जायेगा... गाड़ी पार्क कर दौडते हुऐ स्टेशन में दाखिल हुआ.. "इंद्रप्रस्थ की और जाने वाली मेट्रो प्लेटफोर्म पर आ रही है.." सुरक्षा जांच में जाते हुऐ ट्रेन की आवाज सुनाई दी... सुरक्षा कर्मी की और गिड़्गीडाते हुए देखा आंखे कह रही थी "भाई जल्दी जाने दे".. वो भी शायद समझ गया.. वंहा से निकला तो दो असंमझस था... स्वचालित सिढ़ी से जाऊ या सिढ़ी से.. देर हो रही थी.. अतः खुद पर भरोसा करना ज्यादा उचित समझा.. सिढ़ी की ओर लपक लिया.. उछलते कुदते सिढी़ चढा.. देखा सामने मेट्रो रानी खड़ी थी.. तुरंत अंदर दाखिल हुआ.. जैसे कोई किला फतह कर लिया.. मन ही मन खुद की प्रसंशा.."वाह प्यारे तुमने तो कर दिखाया.." ये थी आज की पहली खुशी..
जब ट्रेन में दाखिल हुए तो लालच और बढा़... एक सीट मिल जाये तो क्या कहने... आंखे इधर उधर ताकने लगी.. अभी गुजांइश थी.. कुछ सीट खाली थी.. लपक लिये.. देखा वो तो आरक्षित है.. उस पर बैठना नादानी होगी.. कुछ ही देर में उठा दिये जाओगे.. फिर क्या दुसरे कोच में दाखिल हुए.. सामने देखा एक सीट मेरा इन्तजार कर रही थी.. कोई और आये इससे पहने ही तुरंत अपना हक जता दिया.. सीट पर बैठ कर एक गहरी सांस ली.. लगा आज का दिन कितना अच्छा है.. काश उपर वाले से कुछ और मांगा होता!! दौड़ भाग कर सांस फूल चुकी थी.. कुछ गहरी सांस ले खुद को सामान्य किया.. ये थी आज की दुसरी खुशी....
कुछ देर बाद सांस सामान्य हुई तो अखबार की याद आई, थैला देखा तो पता चला की आज तो जल्दबाजी में घर ही भूल आये है.. अब अपने लिये कुछ नहीं बचा था.. तो नजरें ऊपर उठाई.. आस पास देखा.. अचानक नजरें रुक गई.. दुसरे कोच में एक महिला खड़ी थी.. हाथ में दो ढाई साल का बच्चा.. उसकी और देखा.. जब नजर मिली तो "अपनी" सीट से उठते हुऐ उसे "सीट" ऑफर की.. उसके साथ उसके पति भी थे.. तुरंत ही मेरी तरफ बढ़ गये.. इतने में खाली सीट देख कुछ और लोग उस तरफ बढे पर आंख से इशारा कर उन्हें मना किया.. वो मान भी गये.. अब महिला और बच्चा उस सीट पर बैठे थे.. और मैं उनके सामने ही खड़ा था.. महिला के होठ हिले.. पर आवाज नहीं आ रही थी.. लेकिन उसकी आंखे शायद मुझे धन्यवाद कह रही थी.. माँ और बच्चा दोनों खुश थे आराम से थे.. और मैं खडे़ खडे़ "तीसरी खुशी" के बारे में सोचता हुआ सफर कर रहा था....
तीसरी खुशी
Posted by
रंजन (Ranjan)
at
Tuesday, February 24, 2009
6 comments:
सच्ची खुशी है यह :)
पढकर अच्छा लगा...
" शायद तीसरी खुशी से आपका आज का दिन भी सार्थक हो गया..."
Regards
सुन्दर भावना. सच्ची खुशी तो यह है ही.
तीसरी खुशी? भैया हमें यह पढ़ कर चौथी खुशी हो रही है। उम्दा पोस्ट।
आपकी लेखन शैली ने आखिर तक बांधे रखा ॥ चौथी खुशी के रूप मे मेरी यह टिप्पणी स्वीकारे ।
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